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ईरान से पाकिस्तान और भारत तक पाइपलाइन: क्या यह शांति की पाइपलाइन है?

(उत्कर्ष पटेल)
ईरान पाकिस्तान भारत (आईपीआई) गैस पाइपलाइन, जिसे 'शांति पाइपलाइन' के नाम से भी जाना जाता है, एक ऐसी परियोजना है जो दक्षिण एशिया में ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक सहयोग की संभावना को दर्शाती है। पाइपलाइन का विचार पहली बार 1995 में सामने आया जब ईरान और पाकिस्तान ने ईरान के दक्षिण पारस गैस क्षेत्र से पाकिस्तान के कराची तक गैस परिवहन के लिए एक प्रारंभिक समझौते पर हस्ताक्षर किए। बाद में ईरान ने पाइपलाइन को भारत तक विस्तारित करने का प्रस्ताव रखा और 1999 में भारत ने इस परियोजना में शामिल होने के लिए सैद्धांतिक रूप से सहमति व्यक्त की। इस परियोजना का उद्देश्य ईरान के विशाल गैस भंडार का दोहन करके पाकिस्तान और भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना था, जिससे देशों के बीच आर्थिक संबंधों को मजबूत करने की उम्मीद थी। लेकिन क्या पाइपलाइन वास्तव में 'शांति की पाइपलाइन' हो सकती है? इस सवाल का जवाब राजनीतिक, आर्थिक और भू-राजनीतिक कारकों पर निर्भर करता है।
पाइपलाइन का ऐतिहासिक उद्देश्य
ईरान के दक्षिण पारस गैस क्षेत्र से शुरू होकर पाकिस्तान के बलूचिस्तान और सिंध से होते हुए भारत तक पहुंचने वाली पाइपलाइन की लंबाई लगभग 2,775 किलोमीटर थी। इस परियोजना की अनुमानित लागत लगभग 7.5 बिलियन डॉलर थी। 2004 में, UNDP की रिपोर्ट 'शांति और समृद्धि गैस पाइपलाइन' ने ऊर्जा आपूर्ति, आर्थिक विकास और क्षेत्रीय स्थिरता सहित परियोजना के लाभों पर प्रकाश डाला। 2007 में, भारत और पाकिस्तान ने ईरान को गैस की प्रति यूनिट 4.93 डॉलर का भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की, लेकिन मूल्य निर्धारण और सुरक्षा मुद्दों पर बातचीत जारी रही।
शांति पाइपलाइन प्रस्ताव का विचार
'शांति पाइपलाइन' नाम का उद्देश्य यह दिखाना था कि परियोजना केवल ऊर्जा आपूर्ति के लिए नहीं थी, बल्कि भारत और पाकिस्तान जैसे ऐतिहासिक रूप से शत्रुतापूर्ण देशों के बीच आर्थिक निर्भरता और सहयोग बढ़ाकर शांति स्थापित करना भी था। इस पाइपलाइन के माध्यम से, ईरान अपने गैस निर्यात का विस्तार कर सकता है, पाकिस्तान अपने ऊर्जा संकट को दूर कर सकता है और भारत अपनी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए अपने ऊर्जा स्रोतों में विविधता ला सकता है। इस तरह, इस परियोजना में क्षेत्रीय स्थिरता और समृद्धि का प्रतीक बनने की क्षमता है।
बाधाएं और विवाद
हालांकि, इस पाइपलाइन की राह आसान नहीं रही है। 2009 में भारत ने लागत और सुरक्षा मुद्दों का हवाला देते हुए इस परियोजना से हटने का फैसला किया था। यह फैसला अमेरिका के साथ 2008 के असैन्य परमाणु समझौते और ईरान पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के दबाव के कारण भी लिया गया था। भारत के बाहर निकलने के बाद, पाकिस्तान और ईरान ने 2010 में द्विपक्षीय ईरान पाकिस्तान (आईपी) पाइपलाइन पर काम जारी रखने का फैसला किया। ईरान ने अपना 1,100 किलोमीटर का खंड पूरा कर लिया, लेकिन पाकिस्तान ने अमेरिकी प्रतिबंधों और वित्तीय समस्याओं के कारण इसके 780 किलोमीटर के खंड के निर्माण में देरी की। 2024 में, पाकिस्तान ने 80 किलोमीटर के छोटे खंड का निर्माण शुरू करने की अनुमति दी, लेकिन परियोजना अभी भी रुकी हुई है।
भू-राजनीतिक चुनौतियां
इस पाइपलाइन की सफलता के लिए सबसे बड़ी चुनौती भू-राजनीतिक अस्थिरता है। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध और भारत और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण संबंध इस परियोजना के कार्यान्वयन में बड़ी बाधाएं हैं। इसके अलावा, सुरक्षा संबंधी चिंताएं और बलूचिस्तान में आतंकवाद का खतरा भी पाइपलाइन के निर्माण को खतरे में डालता है। अमेरिका ने इस परियोजना का स्पष्ट रूप से विरोध किया है और पाकिस्तान को चेतावनी दी है कि ईरान के साथ व्यापार करने पर प्रतिबंधों का जोखिम है। इसके अलावा, पाकिस्तान की आर्थिक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर निर्भरता इस परियोजना के भविष्य को अनिश्चित बनाती है।
वर्तमान स्थिति
2025 की शुरुआत तक, ईरान-पाकिस्तान गैस पाइपलाइन अभी भी रुकी हुई है और भारत के फिर से इसमें शामिल होने की संभावना नहीं है। ईरान ने पाकिस्तान को धमकी दी है कि अगर वह अपना हिस्सा पूरा नहीं करता है तो उस पर 18 बिलियन डॉलर का जुर्माना लगाया जाएगा। पाकिस्तान इस जुर्माने से बचने के लिए 80 किलोमीटर के एक छोटे से हिस्से का निर्माण शुरू करने की योजना बना रहा है, लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों के डर से आगे बढ़ने से हिचकिचा रहा है। दूसरी ओर, भारत ने तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (TAPI) पाइपलाइन पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसे अमेरिका का समर्थन प्राप्त है। TAPI पाइपलाइन को भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक सुरक्षित और राजनीतिक रूप से स्वीकार्य विकल्प के रूप में देखा जाता है।
इस स्थिति में, 'शांति पाइपलाइन' का विचार अभी तक केवल सैद्धांतिक ही रहा है। भारत और पाकिस्तान के बीच अविश्वास, ईरान पर प्रतिबंध और क्षेत्रीय अस्थिरता इस परियोजना को शांति का प्रतीक नहीं बनने देते। अगर भविष्य में भू-राजनीतिक स्थिति बदलती है और तीनों देशों के बीच विश्वास का माहौल बनता है तो यह पाइपलाइन क्षेत्रीय सहयोग और आर्थिक विकास का माध्यम बन सकती है।
(लेखक एक प्रसिद्ध उद्यमी और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं।)
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