सिरसा: सैनिकों का गांव, जहां सीमा पर तैनात है हर घर से एक जवान

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उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में एक ऐसा गांव है, जो 'सैनिकों का गांव' कहा जाता है, क्योंकि यहां से हर घर से कोई न कोई जवान देश की रक्षा के लिए सीमाओं पर तैनात है। इस गांव ने सैकड़ों सैनिक तैयार किए हैं, जो भारतीय सेना, बीएसएफ और सीआरपीएफ में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।  इसके अलावा, गांव में 300 से अधिक पूर्व सैनिक भी हैं, जिन्होंने भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान युद्धों में अपनी वीरता का परिचम लहराया।

1957 में सैन्य परंपरा की शुरुआत
सिरसा में सैन्य परंपरा की शुरुआत 1957 में हुई, जब 90 वर्षीय हरपाल सिंह जाट रेजिमेंट में हवलदार के पद पर भर्ती हुए। हरपाल सिंह ने भारत-चीन युद्ध (1962) और भारत-पाकिस्तान युद्धों (1965 और 1971) में हिस्सा लिया था।  हरपाल सिंह के सेना में शामिल होने के बाद गांव में यह परंपरा शुरू हुई, जो अभी तक चल रहा है। गांव के हर बच्चे को सेना में जाने का उत्सुकता शुरू से ही देखा जाता है। उनकी परवरिश भी इसी तरह की जाती है, ताकि वे शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बन सकें। 

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87 वर्षीय श्योदान सिंह वर्ष 1960 में जाट रेजिमेंट में सिपाही के पद पर तैनात हुए। इन्होंने भारत-चीन युद्ध में बहादुरी से दुश्मन का सामना किया। भारत-पाकिस्तान से हुए युद्ध में अहम भूमिका निभाई। इसके बाद दक्षिण अफ्रीका में कांगो युद्ध में शामिल हुए। सेवानिवृत्ति से पूर्व इन्हें सात मेडल देकर सम्मानित भी किया गया था।

पांच भाइयों की वीरता की कहानी
सेवानिवृत्त कैप्टन केहरी सिंह ने 1961 में सेना में कदम रखा। उनके बाद उनके चार भाई सरदार सिंह, रामेंद्र सिंह, सूबेदार मुख्तियार सिंह और शौली सिंह भी सेना में शामिल हुए। इन पांच भाइयों ने भारत-पाकिस्तान युद्धों में हिस्सा लिया और अपनी बहादुरी का परचम लहराया। 

नायब सूबेदार पद से सेवानिवृत्त ओमवीर सिंह वर्ष 1998 में जाट रेजिमेंट शामिल हुए। इन्होंने कारगिल युद्ध में भाग लिया था। उनके पिता स्व. नन्नू सिंह हवलदार के पद से 1982 में सेवानिवृत्त हुए थे। नन्नू सिंह ने भारत-पाकिस्तान युद्ध में भाग लिया था। ओमवीर सिंह कहते हैं, "अगर देश को जरूरत पड़ी, तो मैं फिर से पाकिस्तान के खिलाफ जंग लड़ने को तैयार हूं।" उनकी यह भावना गांव के हर सैनिक और युवा में देखी जा सकती है।

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