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लालू के तिलिस्म को तोड़ने की सियासत: भाजपा का हिंदूत्व और नीतीश का पसमांदा कार्ड

लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी आरजेडी बिहार की सियासत राजनीति में काफी वर्चस्व रहा। 1990 के दशक में लालू ने अपनी राजनीति और यादव-मुस्लिम समीकरण के दम पर बिहार में एक मजबूत आधार बनाए हुए थे। लेकिन पिछले कुछ दशकों में भाजपा और नीतीश कुमार की जेडीयू की गठबंधन रणनीति ने लालू के वर्चस्व में सेंध लगाने में कामयाब रही। भाजपा का हिंदू कार्ड और नीतीश का पसमांदा मुस्लिम समुदाय पर फोकस करना इस बदलाव की बड़ी वजह बनीं।
1990 में जब लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सत्ता संभाली, तो उन्होंने सामाजिक न्याय के नारे को अपनी ताकत बनाया। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने का उनका फैसला एक मास्टरस्ट्रोक साबित हुआ। यह समीकरण लंबे समय तक बिहार की सियासत में अजेय रहा। लालू की पार्टी ने 1990 से 2005 तक बिहार में शासन किया, जिसमें उनकी पत्नी राबड़ी देवी भी सीएम रहीं। लेकिन इस दौरान बिहार में जंगलराज की छवि, भ्रष्टाचार के आरोप और विकास का अभाव लालू के खिलाफ माहौल बनाने लगा।

बिहार में भाजपा का हिंदू कार्ड
बिहार में भाजपा ने हिंदू वोटों को एकजुट करने की कोशिश की, जिसमें अयोध्या आंदोलन और राम मंदिर जैसे मुद्दों ने अहम भूमिका निभाई। 1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद जब जातिगत राजनीति ने जोर पकड़ा, तो भाजपा ने इसका जवाब कमंडल की राजनीति से दिया। भाजपा का कहना था कि अगर हिंदू वोटों को जाति की दीवारों से ऊपर उठाकर एकजुट किया जा सके, तो लालू के समीकरण को तोड़ा जा सकता है।
भाजपा ने गैर-यादव ओबीसी और अति पिछड़े वर्गों को अपने साथ जोड़ने का काम शुरू कर दिया। पार्टी ने बिहार में छोटी-छोटी जातियों जैसे कुर्मी, कोइरी और अन्य ओबीसी समुदायों को टारगेट किया। इसके साथ ही भाजपा ने सवर्ण वोटों को भी अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। 2020 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 73 सीटें जीतीं, जो इस रणनीति की सफलता का सबूत था। बीजेपी ने न केवल हिंदू वोटों को एकजुट किया, बल्कि नीतीश कुमार के साथ गठबंधन कर गैर-मुस्लिम वोटों को और मजबूत किया।
नीतीश कुमार का मुस्लिम वोटों में सेंधमारी
नीतीश कुमार ने अपनी रणनीति में पसमांदा मुस्लिम समुदाय को पक्ष में करने का काम किया। बिहार में मुस्लिम आबादी का करीब 17.7% हिस्सा है, जिसमें से 80% पसमांदा मुस्लिम हैं। पसमांदा मुस्लिम वे हैं जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और अक्सर मुस्लिम समाज के अंदर ही हाशिए पर रहे हैं। नीतीश ने इस समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए कर कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू कीं, जैसे मदरसों का आधुनिकीकरण, पसमांदा समुदाय के लिए स्कॉलरशिप और सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी बढ़ाने की कोशिश।
जहां लालू प्रसाद यादव का मुस्लिम वोट बैंक एकजुट माना जाता था, वहीं नीतीश ने पसमांदा मुस्लिमों को यह भरोसा दिलाया कि उनकी बनने पर सरकार उनके हितों के लिए बेहतर काम करेगी। 2023 के बिहार जाति सर्वेक्षण ने भी नीतीश को इस रणनीति को मजबूत करने में मदद की, क्योंकि इस सर्वे ने पसमांदा समुदाय की आबादी और उनकी सामाजिक स्थिति को स्पष्ट किया।

भाजपा और जेडीयू गठबंधन की ताकत
भाजपा और नीतीश का गठबंधन बिहार में एक मजबूत सियासी ताकत बनकर उभरा। जहां बीजेपी ने हिंदू वोटों को एकजुट किया, वहीं नीतीश ने पसमांदा मुस्लिम और गैर-यादव ओबीसी वोटों को अपने पक्ष में किया। इस गठबंधन ने लालू के एम-वाय समीकरण को सीधे चुनौती दी। 2020 के विधानसभा चुनावों में एनडीए ने 125 सीटें जीतीं, जबकि आरजेडी-कांग्रेस के महागठबंधन को 110 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
2024 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर एनडीए को छोड़कर महागठबंधन के साथ हो गए थे, लेकिन यह गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चला। जनवरी 2024 में नीतीश फिर से एनडीए में आ गए और भाजपा के साथ सरकार बनाई। इस बार भी नीतीश और भाजपा ने अपनी रणनीति को और धार दी।
जहां लालू प्रसाद यादव की राजनीति यादव और मुस्लिम वोटों पर केंद्रित रही, वहीं भाजपा और नीतीश ने छोटी जातियों और हाशिए पर रहे समुदायों को साधने में सफलता पाई।
2020 के चुनावों में आरजेडी 75 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, हालांकि, लालू की पार्टी अभी भी बिहार की सियासत में एक अहम खिलाड़ी है। जो इस बात का सबूत है कि लालू का वोट बैंक पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। लेकिन भाजपा और नीतीश की रणनीति ने उनके तिलिस्म को जरूर कमजोर किया है।
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