कांवड़ यात्रा: विषपान से नीलकंठ बने शिव और जलाभिषेक की सनातन परंपरा

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भगवान शिव को प्रसन्न करने की अनेक साधनाओं में कांवड़ यात्रा एक अत्यंत लोकप्रिय और प्रभावशाली माध्यम है। सावन के पवित्र महीने में यह यात्रा शिव भक्ति का प्रतीक बन जाती है, जिसमें लाखों श्रद्धालु गंगाजल लेकर भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। यह परंपरा पौराणिक कथाओं में निहित है, जो सृष्टि के कल्याण के लिए भगवान शिव के त्याग को दर्शाती है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार सावन महीने में ही समुद्र मंथन हुआ था। इस मंथन से जब विष निकला तो उसकी प्रचंड ज्वाला ने संपूर्ण सृष्टि को विनाश की ओर धकेलना शुरू कर दिया। सभी देवता भयभीत होकर त्राहिमाम करने लगे और उन्होंने लोक कल्याण के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की।

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शिवजी ने सृष्टि को बचाने के लिए वह भयंकर विष स्वयं ही ग्रहण कर लिया। उन्होंने उस विष को न तो बाहर निकाला और न ही अपने शरीर में भीतर जाने दिया, बल्कि अपने कंठ में ही रोक लिया। विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया, और तभी से वे ‘नीलकंठ’ कहलाए जाने लगे। 

विष की प्रचंड तीव्रता से शिवजी को शीतलता प्रदान करने के लिए देवताओं ने उन पर पवित्र गंगाजल का अभिषेक किया। माना जाता है कि यहीं से भगवान शिव पर जल चढ़ाने की पावन परंपरा का शुरुआत हुआ। यह भी विश्वास है कि शिव पर जलाभिषेक करने से उनके कंठ में धारण किए गए विष की अग्नि शांत होती है, और साथ ही भक्तों को भी शिव की कृपा से शांति, कल्याण और समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। 

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त्रेतायुग में भगवान राम ने और द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने कांवड़ में जल भरकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। कुछ विद्वानों का मानना है कि सर्वप्रथम श्रवण कुमार ने कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। 

सावन मास में किए गए पुण्य कर्म भक्तों के जीवन को शुद्ध एवं समृद्ध करते हैं, उन्हें प्रगति, उत्तम स्वास्थ्य और आध्यात्मिक उत्थान की ओर ले जाते हैं। यह मान्यता है कि सावन में यदि हम सच्चे मन से भगवान शिव की भक्ति करते हैं, तो जीवन में किसी भी प्रकार का भय और कष्ट स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं, और शिवजी की कृपा से जीवन में सुख-शांति का वास होता है।

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